Shiv Avatar , शौनक जी बोले – हे महात्मा सूत जी! आप मुझे कलयुग में कल्याण करने वाले भगवान शिवजी के अवतारों की सुखद कथा सुनाने की कृपा करें। सूत जी ने कहा कि यही रहस्यमयी कथा सुनने की इच्छा सनत्कुमार जी ने नन्दीश्वर के आगे प्रकट की थी। उन्होंने जैसा वर्णन किया था, वही मैं आपको सुनाता हूं। आप ध्यान देकर सुनें।
सूत जी बोले – श्वेतलोहित नामक उन्नीसवें कल्प में शिवजीका प्रथम सघोजात नामक अवतार हुआ था। उस कल्प में परब्रह्म का ध्यान करते हुए ब्रह्मा जी को शिखा से श्वेतलोहित कुमार उत्पन्न हुए। तब ब्रह्मा जी उन्हें सघोजात शिव जानकर उनका ही बार-बार चिन्तन करने लगे। उनके उस चिंतन से सुनन्दन नंदन, विश्वनंदन और उपनंदन नामक बहुत से कुमार हुए। तब सघोजर्जात कुमार ने ब्रह्माजी को ज्ञान देकर सृष्टि उत्पन्न करने की शक्ति दी।
रक्त नामक ब्रीसवें कल्प में ब्रह्माजी रक्तवर्ण के हो गए और फिर उनके जैसा ही रक्तारक्त नेत्र और रक्तवर्ण वाला वामदेव ‘नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे साक्षात शिव जानकर ब्रह्माजी ने उसकी स्तुति की। उस रक्तवर्ण बालक के विरज विवाह, विशोक और विश्वभाबन नामक चार पुत्र हुए। गुरु देव शिव ने ब्रह्मा को सृष्टि रचाने की आज्ञा दी।
पीतवास नामक इक्सीवें कल्प में ब्रह्मा ने पीतवस्त्र धारण किया और उनके द्वारा पुत्र की कामना किये जाते हो एक दीर्घ भुजाओं वाला महातेजस्वी तत्पुरुष कुमार उत्पन्न हुआ जिसे उन्होंने शिवजी का अवतार जाना और शिव गायत्री का जप करने लगे। उनके समीप से भी बहुत से दिव्य कुमार प्रकट हुए उस तत्पुरुष शिव ने ब्रह्माजी को सृष्टि रचना का सामर्थ्य प्रदान किया।
शिव नामक बाईसवें कल्प में पुत्र कामना से ब्रह्माजी द्वारा तप किए जाने पर एक कृष्ण वर्ण तेजस्वी ‘अघोर’ बालक उत्पन्न हुआ जिसे प्रणाम कर ब्रह्माजी ने उनको बहुविधि स्तुति की। इस बालक के समीप से चार-कृष्ण, कृष्णशिख, कृष्ण रूप और कृष्ण कण्ठधारी महात्मा प्रकट हुए। इन्होंने ब्रह्माजी को सृष्टि रचना के लिए अद्भुत घोर नामक योग दिया ।
विश्व रूप नामक तेईसवें कल्प में ब्रह्माजी के चिंतन से सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ और साथ ही वैसा वेष धारण किये ईशान बालक उत्पन्न हुआ। फिर उस परमेश्वर भगवान ने अपनी पत्नी से शुभ चार-जटी, मुण्डी, शिखंडी और अर्धमुण्डी- बालकों की उत्पत्ति की। इन्होंने सृष्टि रचना के लिए ब्रह्माजी को आदेश और शक्ति प्रदान की।
Shiv Avatar | शिव अवतार
इस प्रकार शिवजी के पांच-सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष अधीर और ईशान – प्रमुख अवतार हैं। ये सभी परमपूज्य और अत्यन्त प्रशस्त हैं।
सनत्कुमार जी के अनुरोध पर उन्हें शिवजी की अष्टमूर्तियों का परिचय देते हुए नन्दी कहते हैं-विषयों की निम्नलिखित अष्टमूर्तियां अपनी पृथक विशिष्टताओं के कारण विश्व विख्यात हैं Shiv Avatar
1. शर्व
विश्वम्भर स्वरूप भगवान शंकर ही चातुर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करने के ‘सर्व’ अथवा ‘शर्व’ कहलाते हैं।-
2. भव
जगत को संजीवन देने वाले परमात्मा का जलमय रूप ही भव है।
3. उग्र
जगत के भीतर और बाहर रहकर विष्णु को धारण कर स्पन्दित करने वाला शिवजी का भयानक रूप उग्र कहलाता है।
4. भीम
सब अवकाश देने वाले नृपों के समूहों के भेदक शिवजी के सर्व व्यापक आकाशात्मक रूप का नाम ‘भीम’ है।
5. पशुपति
सम्पूर्ण आत्माओं के अधिष्ठाता, सम्पूर्ण क्षेत्र निवासी पशुओं के पाश को काटने वाले शिवजी का स्वरूप ‘पशुपति’ कहलाता है।
6. ईशान
सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त सम्पूर्ण संसार में प्रकाश करने वाला शिवजी का स्वरूप ‘ईशान’ कहलाता है।
7. महादेव
रात्रि में चन्द्रमा से अपनी किरणों से मनुष्य पर अमृत वर्षा करता हुआ जगत को प्रकाश और तृप्ति देने वाला शिवजी का रूप महादेव कहलाता है।
8.रुद्र
भगवान शिव की जीवात्मा का रूप रुद्र है।
हे सनत्कुमार जी! जिस प्रकार वृक्ष की जड़ में जल सींचने से वृक्ष के पत्र पुष्प शाखा आदि सभी हरे-भरे रहते हैं, उसी प्रकार जगत के मूल शिवजी का पूजन-अर्चन करने से सम्पूर्ण जगत के सभी पदार्थ सहज उपलब्ध होते हैं।
शिवजी द्वारा ब्रह्मा की इच्छा पूर्ण करने के लिए अर्ध-नारीश्वर रूप धारण करने का इतिहास बताते हुए नंदीश्वर जी बोले-हे सनत्कुमार जी ! ब्रह्माजी तब अपनी मानसी सृष्टि के न बड़ने पर चिंतित हो उठे तो उन्हें आकाशवाणी सुनाई दी कि सृष्टि का विस्तार तो मैथुनी सृष्टि से होगा परन्तु उस समय भगवान शंकर ने स्त्रियों को उत्पन्न नहीं किया था। इस पर ब्रह्माजी ने घोर तप किया, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी अर्धनारीश्वर (आधा शरीर पुरुष का और आधा स्त्री का ) रूप में प्रकट हुए।
ब्रह्माजी ने प्रणाम कर अपना अभीष्ट निवेदन किया तो भगवान शिव ने अपना शिवा रूप को अपने स्वरूप से अलग कर दिया। ब्रह्माजी ने शक्ति को पृथक देखकर उनकी स्तुति की और सृष्टि रचना में अपनी असमर्थता के लिए भगवती से नारी कुल प्रकट करने की प्रार्थना की। यह सुनकर शक्ति ने अपनी भौंहों के बीच से अपने समान सुन्दर रूप कान्ति वाली दूसरी शक्ति प्रकट करके ब्रह्माजी को दे दी।
शिवजी ने ब्रह्माजी के तप पर प्रसन्न होने का भगवती से जब अनुरोध किया तो – उसने ब्रह्माजी को बताया कि वह दक्ष के घर जन्म लेकर मैथुनी सृष्टि करने की इच्छा पूर्ण करेगी। यह कहकर शिवा शिवजी के शरीर में प्रविष्ट हो गई और शिवजी अन्तर्ध्यान हो गए।
सनत्कुमार की जिज्ञासा पर नंदीश्वर उन्हें अपने जन्म का वृतांत सुनाते हुए बोले कि मेरे पिता शिलाद ऋषि ने अपने पुत्र की कामना से तप किया तो उनके तप से प्रसन्न होकर इन्द्र उनके सामने आए और वर मांगने का अनुरोध करने लगे शिलाद ने आयोनिज तथा मृत्युहीन पुत्र देने का वरदान मांगा। इन्द्र ने इस वर को देने में केवल शिवजी की आराधना प्रारम्भ कर। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें आयोनिज और मृत्युहीन पुत्र प्राप्त होने का वरदान दिया।
घर आकर शिलाद की यज्ञाग्नि से मैं प्रकट हुआ। मुझे त्रिनेत्र चतुर्भुज, जटामुकुटधारी को पुत्ररूप में पाकर शिलाद को अत्यंत प्रसन्नता हुई। मेरे जन्म से आनंदित पिता ने मुझे आनंददाता मानते हुए मेरा नाम नंदी रख दिया। अपने पिता की कुटिया में जाकर मैंने साधारण बालक का रूप धर लिया।
मेरे सात वर्ष के होने पर मित्रावरुण मुझे देखने आए और मेरी अल्प काल में अर्जित विद्या पर आश्चर्य प्रकट करने लगे ! उन्होंने मेरे पिता को मेरी एक ही वर्ष की आयु शेष बताकर उन्हें विपन्न तथा चिंतित कर दिया। मैंने अपने पिता को भगवान शंकर के भजन से मृत्यु जीतने का विश्वास दिलाकर महावन की ओर प्रस्थान किया।
महावन में जाकर मैंने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया तो आशुतोष प्रभु शंकर पार्वती सहित मेरे सम्मुख प्रकट हुए। मैंने उन्हें प्रणाम करके अनेक प्रकार से स्तुति की, जिस पर प्रसन्न होकर शंकर भगवान ने मुझे बताया कि मित्रवरुण को तो उन्होंने भेजा था। अन्यथा तुम तो मेरे अजर अमर पुत्र हो और मैं तुम्हें अपने गुणों का अधिपति बनाता हूं।
शिवजी ने कृपा पूर्वक अपने कण्ठ से एक माला निकालकर ज्योंही मेरे गले में डाली त्योंही मैं दिव्य रूप वाला द्वितीय रुद्र बन गया। शिवजी ने कृपा करते हुए मुझे अपना चिर सान्निध्य प्रदान किया। यथा समय मरुत की रूपवती सुयशा नाम की कन्या से मेरा विवाह हुआ। हम दोनों पति-पत्नी को भगवती पार्वती ने अपने चरणों में नित्य-भक्ति का वरदान दिया, जिससे हम कृत्याकृत्य भाव से शिव पार्वती के समीप रहकर उनका गुणगान करने लगे।
भगवान शंकर के पूर्ण रूप भैरव जी की उनि की कथा सनत्कुमार जी को सुनाते हुए नंदीश्वर कहते हैं – अज्ञानी जन महेश्वर शंकर की महिमा को न जानने के कारण भैरव जी को उनका प्रतिरूप नहीं मानते। वस्तुतः शिवजी की माया अपार है जिसे ब्रह्मा और विष्णु आदि भी नहीं जानते, औरों की तो बात ही क्या है। इस सम्बन्ध में एक इतिहास प्रसिद्ध है- एक बार सुमेरु पर्वत पर बैठे हुए ब्रह्माजी के पास जाकर देवताओं ने उनसे अविनाशी तत्व बतलाने का अनुरोध किया।
शिवजी की माया से मोहित ब्रह्माजी उस तत्व को न जानते हुए भी इस प्रकार कहने लगे- मैं ही एक मात्र संसार को उत्पन्न करने वाला स्वयंभू, अज, एक मात्र ईश्वर अनादि भक्ति, ब्रह्म घोर निरंजनं आत्मा हूं। मैं ही प्रवृत्ति और निवृत्ति का मूलधार, सर्वलीन पूर्ण ब्रह्म हूं। ब्रह्माजी के कहने पर वहां मुनिमंडली में विद्यमान विष्णुजी ने उन्हें समझाते हुए कहा कि मेरी आज्ञा से तो तुम सृष्टि के रचयिता बने हो, मेरा अनादर करके तुम अपने प्रभुत्व की बात कैसे कर रहे हो ?
इस प्रकार ब्रह्मा और विष्णु अपना-अपना प्रभुत्व स्थापित करने लगे और अपने पक्ष के समर्थन में शास्त्र वाक्य उधृत करने लगे। अन्ततः वेदों से पूछने का निर्णय हुआ तो स्वरूप धारण करके आए चारों वेदों ने क्रमशः अपना मत इस प्रकार प्रकट किया-
ऋग्वेद – जिसके भीतर समस्त भूतिनिहित हैं तथा जिससे सब कुछ प्रवृत्त होता है और जिसे परमात्व कहा जाता है, वह एक रुद्र रूप ही है।
यजुर्वेद- जिसके द्वारा हम ( बेद) भी प्रमाणित होते हैं तथा जो ईश्वर के सम्पूर्ण यज्ञों तथा योगों से भजन किया जाता है, सबका द्रष्टा वह एक शिव ही है।
सामवेद – जो समस्त संसारी जनों को भरमाता है, जिसे योगीजन ढूँढ़ते हैं और जिसकी भांति से सारा संसार प्रकाशित होता है, वह एक त्र्यम्बक शिवजी ही हैं।
अथर्ववेद – जिसकी भक्ति से साक्षात्कार होता है और जो सब या सुख-दुखातीत अनादि ब्रह्मा है, वह केवल एक शंकर जी हैं।
विष्णु ने वेदों के इस कथन को प्रताप बताते हुए नित्य शिवा से रमण करने वाले, दिगम्बर पीतवर्ण-धूलिधूसरित प्रेमथनाथ, कुवेटाधारी, सर्वावेष्टित, नृपनवाही, निःसंग शिवजी को परब्रह्म मानने से इंकार कर दिया। ब्रह्मा-विष्णु विवाद को सुनकर ओंकार ने शिवजी की ज्योति, नित्य और सनातन परब्रह्म बताया परंतु फिर भी शिवमाया से विमोहित ब्रह्मा विष्णु की बुद्धि नहीं बदली।
उस समय उन दोनों के मध्य आदि अंतरहित एक ऐसी विशाल ज्योति प्रकट हुई कि उससे ब्रह्मा का पंचम सिर जलने लगा। इतने में त्रिशूलधारी नील-लोहित वहां प्रकट हुए तो अज्ञानतावश ब्राह्मण उन्हें अपना पुत्र बताकर अपनी शरण में आने को कहने लगे। ब्रह्मा की सम्पूर्ण बातों को सुनकर शिवजी अत्यंत क्रुद्ध हुए और उन्होंने तत्काल भैरव को उत्पन्न करके उसे ब्रह्मा पर शासन करने का आदेश दिया।
शिवजी ने उसके भीषण होने के कारण ‘भैरव’ और काल को भी भयभीत करने वाला होने के कारण ‘काल भैरव’ तथा भक्तों के पापों को तत्काल नष्ट करने वाला होने के कारण ‘पाप भक्षक’ नाम देकर उसे काशीपुरी का अधिपति बना दिया। इसके उपरांत काल भैरव ने अपनी बाईं उंगली के नखाग्र से ब्रह्माजी का पंचम सिर काट डाला। भयभीत ब्रह्मा शतरुदी का पाठ करने लगे। ब्रह्मा विष्णु को सत्य की प्रतीति हो गई और वे शिवजी की महिमा का गान करने लगे। यह देखकर शिवजी ने उन दोनों को अभयदान दिया।
इसके उपरांत शिवजी ने भैरव जी से कहा कि तुम इन ब्रह्मा विष्णु को मानते हुए ब्रह्मा ने कपाल को धारण करके इसी के आश्रय से भिक्षा वृत्ति करते हुए वाराणसी में चले जाओ। वहाँ उस नगरी के प्रभाव से तुम ब्रह्म हत्या के पाप से निवृत्त हो जाओगे।
शिवजी की आंज्ञा से भैरव जी हाथ में कपाल लेकर ज्योंही काशी की ओर चले, ब्रह्म हत्या उनके पीछे पीछे चलो। विष्णुजी ने उनकी स्तुति करते हुए उनसे अपने को उनकी माया से मोहित न होने का वरदान मांगा। विष्णुजी ने ब्रह्महत्या को भैरव जी का पीछा करने को कहा तो उसने बतायाँ कि वह तो अपने को पवित्र और मुक्त करने के लिए उनका अनुसरण कर रही है।
भैरव जी ज्यों ही काशी पहुंचे त्यों ही उनके हाथ से, चिमटा कपाल छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और उस स्थान का नाम कपालमोचन तीर्थ पड़ गया। इस तीर्थ में जाकर सविधि पिण्डदान और देव-पितृ-दर्पण करने से मनुष्य ब्रह्म हत्या के पाप से निवृत्त हो जाता है। इस कारण काशी सदा सेवनीय है।
शिवजी चरित्र श्रवण में सनत्कुमार की उत्सुकता और श्रद्धा भावना को देखते हुए नंदीश्वर जी बोले- शिवजी के अन्य प्रमुख Shiv Avatar इस प्रकार से हैं-
शरभ अवतार
गृहपति अवतार
नीलकंठ और यक्षेश्वर अवतार
एकादश रूद्र अवतार
दुर्वासा अवतार
महेश अवतार
हनुमान अवतार
वृषभ अवतार
पिप्लाद अवतार
वैश्यनाथ अवतार
द्विजेश्वर अवतार
यतिनाथ अवतार
कृष्णदर्शन अवतार
अधुतेश्वर अवतार
भिझुवर्य अवतार
सुरेश्वर अवतार
ब्रह्मचारी अवतार
सुनटनर्तक अवतार
साधु अवतार
विशु अश्वत्थामा अवतार
किरात अवतार