शास्त्रों में कहा गया है कि ग्रह शुभ स्थिति में हो, तो शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न रहता है । यदि मन प्रसन्न हो तो तन स्वस्थ रहता है । तन, मन प्रसन्न व स्वस्थ हो, तो ही जीवन सुखी व समृद्ध होता है ।
हम जीवन में जो कुछ भी करते हैं, वह शरीर के बल पर ही करते हैं और आगे भी शरीर स्वस्थ और सबल रख पायेंगे, तो ही कर सकेंगे, क्योंकि हमारे जीवन की यात्रा इस शरीर रूपी वाहन में बैठकर ही करते हैं । शरीर रूपी वाहन जितना मजबूत और बढ़िया रहेगा, उतनी ही हमारी जीवन यात्रा मजेदार और लंबी होगी ।
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जैसे कमजोर और खटास गाड़ी में यात्रा करना कष्टपूर्ण होती है, उसी तरह कमजोर और रोगी शरीर के कारण हमारी जीवन यात्रा भी नाना प्रकार के दुखों एवं बाधाओं से भर जाती है ।
ग्रह द्वारा शरीर का संचालन :-
ज्योतिष विज्ञान के अनुसार हमारे सारे शरीर का संचालन ग्रहों के द्वारा ही होता है ।
सूर्य नेत्र में स्थिर होकर जीव मात्र को देखने की शक्ति प्रदान करता है और अमाशय में बैठकर पाचन क्रिया को संचालित करता है ।
चंद्रमा मन को प्रभावित करता है तथा जल तत्व को सम्यक रूप से नियंत्रित करता है ।
मंगल रक्त को शरीर में संचालित करता है ।
बुध बुद्धि तथा हृदय का स्वामी होकर हर प्रकार का आनंद हृदय को प्रदान करता है ।
बृहस्पति मेधा बुद्धि को संचालित कर ज्ञान प्रदान करता है ।
शुक्र जिह्वा तथा जननेद्रियों में निवास कर हर प्रकार के रसों का रसास्वादन कराता है और जननेंद्रियों के सारे भोगों का रस प्रदान करता है ।
उदर को चलाने का कार्य शनि, राहु तथा केतु तीन ग्रह करते हैं ।
शनि वायुमंडल का स्वामी है ।
राहु ग नाभि से चार अंगुल नीचे बैठता है और पिंडलियों में बैठकर चलने की शक्ति प्रदान करता है ।
केतु पाचन तंत्र तथा पैर के तलवों में निवास करता है और मानव मात्र को चलाता है ।
जब ग्रह प्रतिकूल होते हैं, तो अपने से संबंधित शरीर के अंगों को प्रभावित करते हैं ।
प्रभावित अंगों, में ग्रह की स्थिति के अनुसार दोष, विकृति आ जाती है और अंगों की काम करने की ताकत कम हो जाती है या नष्ट हो जाती है । वह देखने मात्र के रह जाते हैं और उनसे कोई काम नहीं लिया जा सकता है ।
ग्रहों का प्रभाव जीव मात्र जब इस पृथ्वी पर मां के गर्भ से जन्म लेता है, उस समय से ही आरंभ हो जाता है. जिस प्रकार इस संसार में मानव अपने प्रयत्न तथा उद्यम द्वारा अपने जीवन वृत्त में काफी बदलाव ला सकता है, परंतु वह अपनी मां को नहीं बदल सकता है, क्योंकि वह अपने कर्मानुसार उसके जन्म के पूर्व निश्चित की गई होती है।
उसी प्रकार उसके लिए नवग्रहों द्वारा दिशा निश्चित कर दी जाती है, जिसके अनुसार कर्म भोग करते हुए उसे कर्म करने की स्वतंत्रता रहती है, परंतु उसका स्वधर्म अर्थात कर्म काफी निश्चित सा है अर्थात सहज प्राप्त है और हमसे अपने आप उसका पालन होना चाहिये ।
अनेक प्रकार के मोह के कारण ऐसा नहीं होता अथवा बड़ी कठिनाई से होता है और हुआ भी तो उसमें अनेक प्रकार के दोष मिल जाते है। यह सब पिछले देह, बुद्धि के कारण होता है, जिससे हीन विचारों की बाढ़ के कारण स्वधर्म रूपी आरोग्य का नाश हो जाता है और जीवन में कष्टों को भरमार हो जाती है ।
जन्मांग चक्र :-
जन्मांग चक्र में किसी भी ग्रह का प्रभाव दो प्रकार से पड़ता है, प्रथम राशिगत प्रभाव द्वितीय भावगत प्रभाव
राशिगत प्रभाव का आशय संबंधित ग्रह जन्मांग चक्र की किस राशि पर पड़ा है । जन्मांग चक्र में 12 राशियां क्रमवार पड़ी रहती हैं । जिस राशि में ग्रह -उपस्थित रहता है, वही उसका राशिगत प्रभाव का कारण बनता है।
इसी प्रकार भावों की स्थिति होती है । जन्मांग चक्र के प्रथम भाव को लग्न भाव कहा जाता है. प्रथम भाव में जब कोई ग्रह पड़ जाता है, तो यह कहा जाता है कि अमुक ग्रह लग्न भाव में पड़ा है ।